सपने बुनते हुए - 1 Dr. Suryapal Singh द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सपने बुनते हुए - 1

1. सपने बुनते हुए


कभी सुना था उसने

सपने मर जाने से

मर जाता है समाज

आज सपने बुनते हुए

भावी समाज के

वह बुदबुदाया

'चोर को चोर कहना ही

काफी नहीं है'

दो बार और फुसफुसाकर कहा

पर तीसरी बार उसने हाँक लगा दी

'चोर को चोर कहना ही काफी नहीं है।'

तभी एक व्यक्ति दौड़कर आया

'क्या कहोगे मित्र?

किसी चोर को क्या कहोगे ?

सांसद विधायक अधिकारी

या और कुछ।"

'कौन हो तुम ?'

उसी रौ में वह गरज उठा

'गरजो नहीं, मैं एक चोर हूँ

मुझे क्या कहोगे?

चोर को चोर कहना

सचमुच उसका अपमान करना है।'

उस ने सुना या नहीं

पर चौथी हाँक लगा दी

गिर पड़ा लड़खड़ाकर

अविष्ट-सा छा गई बेहोशी।

चोर को लगा कि यह आदमी

चोरों का हितैषी है

उसने उसे उठाया

नर्सिंग होम में भरती कराया

दो घण्टे बाद

उसने आँखें खोली

चोर ने ईश्वर को धन्यवाद दिया

बोल पड़ा 'कुछ सोचा है

चोर को क्या कहोगे?

उसके लिए गोष्ठियाँ-भोज

जो भी करोगे

व्यय की चिन्ता न करना

मैं वहन करूँगा।

देखो मौके पर तुम्हारे

मैं ही काम आया।

तुम्हारे ईमानदार साथी

घरों में दुबके होंगे

कहाँ निकलते हैं

ईमानदार लोग

घरों से बाहर?

तुम ठीक कहते हो

चोरों को भी गरिमा के साथ

जीने का हक है

बड़ी चोरियाँ करके भी

संभ्रान्त लोग

सम्मानित ही रहते हैं

हम छोटे चोर हैं

सम्मान की ज़रूरत

हमें ही सबसे ज्यादा है।

तुम्हारे कथन से

मैं भी उत्साहित हुआ हूँ

सच है नहीं कहना चाहिए

चोर को चोर

हम पूरी मदद करेंगे

तुम्हारे अभियान में।'

शब्दों के अर्थ की

अलग दिशाएँ देख

सोच में खो गया वह

'ओ अर्थछवियो !

कहाँ है तुम्हारा वास

मेरे या चोर के मन में?

ऐसा क्या है जो

कर देता है भिन्न

मेरे अर्थ को उससे?

क्या सचमुच अर्थ

संदेश में नहीं होता?

सपने जन-जन के

क्या बिखरते हैं इसी तरह

अर्थों के जंगल में?'

उसको चिन्ता मग्न देख

चोर ने मुस्कराकर कहा

'चिन्ता छोड़ो

आपके अभियान का

दायित्व मेरा है

सारी चिन्ताएँ मेरे ऊपर छोड़

निश्चिन्त हो जाओ

बस छोटे चोरों को

गरिमा दिलाओ।'


2. तुमने कहा था!


तुमने कहा था

सच को सच लिखूँगा

कभी बबूल या शमी को

नहीं कहूँगा आम या अमलतास

पर पुरस्कार का एक छोटा सा विज्ञापन

हिला गया तुमको

इधर-उधर झाँकने

दुम हिलाने लगे तुम

सच पर मुलम्मा चढ़ा

बन गए मुलम्मासाज़

ऐसे में तुम्हारा सच

सच कहाँ रह पाया?

सत्ता लुभाती है

लुभने से पहले

सोचो हज़ार बार

क्या सत्ता से जुड़कर

सच कह पाओगे?

हमेशा कुछ लोग

सत्ता का दामन साथ

कंचन-कामिनी से

लदे-फॅंदे दिखते हैं

पर सच कहकर

कितने लोग चूमते रहे शूली

खाते रहे कितने ही, देश देश के धक्के

सच कहना कितना ज़रूरी है

इसे जानो

और अपना पक्ष पहचानो।


3. रचना


केवल झाँकना नहीं

उतरना होगा गह्वर में

छिपा होता उसी में

सर्जना का बीज

डरो नहीं

मत करो इन्तज़ार

सीढ़ियाँ बनने का

जोखिम उठाकर धँसो

बिना जोखिम उठाए

घाव का दर्द अनुभव किए

नहीं बनती कोई रचना।




4. अवैध संतति !


ओ महानगर !

कैसे विश्वास करें

हम तुम्हारी नियति पर?

एक-एक रेशा चमकाते

संचालित करते हम तुम्हें

पर शहर के नक्शे में

हमारा कहीं नाम नहीं

बित्ता भर ज़मीन नहीं

पांव टिका लेने को

रह गए हम तुम्हारी

अवैध संतति ही !

अधिकारों से वंचित

कर्त्तव्य बोझ से दबे

कूड़े के ढेर से

होते निष्कासित हम

बार-बार, परिधि पार।

कब तक चलेगा यह

ओ महानगर !



5. मरा नहीं हूँ मैं


हो जाओ सावधान

रास्ता छोड़कर

पंक्तिबद्ध हो

हाथ जोड़ सिर झुका

अभिवादन करो

हमारे महाराज

और महारानी

निकले हैं

हवाखोरी के लिए!

यदि किसी ने

की गुस्ताखी

उसे सज़ा मिलेगी

जिसने भी सुना

बीसों नख जोड़कर

शीश झुका

हो गया खड़ा

पर एक साँड़

बुँबुआते

गाय के पीछे भागते

आ ही गया सामने।

महाराज ने देखा

भवें तनीं

हुक्म हुआ-

साँड़ को तत्काल

बधिया करो

यह इकबाल का

सवाल है।

साँड़ जाने कहाँ छिप गया

कारिन्दे हड़बड़ाए

दौड़कर पकड़ लाए

बधिया कर दिया

उस व्यक्ति को

जिसने कभी कहा था-

कोतवाल बदलो

भ्रष्ट तंत्र बदलो ।

शाम को शतरंज खेलते

महाराज को याद पड़ा

पूछा, 'हो गया

हुक्म पालन?'

'जी हुजूर'

कोतवाल ने

कोरनिश की।

पर बधियाया व्यक्ति

जीवित है अब भी

लगाता है आवाज़

रोज़ चौराहे पर

'मरा नहीं हूँ मैं

मरूँगा भी नहीं

उठो जागो

भ्रष्ट तंत्र बदलो

कोशिश करो

बनाने की

नई व्यवस्था।'

कहते कहते

उसकी आँखें चमककर

अंगारा हो जाती हैं।


6. नदियाँ


नदियाँ आज

तंग गलियाँ हैं

गरल उगलतीं

रुक-रुक बहतीं ।


काट दी हमने

उनकी क्षमता त्वरा

ऐसा कचरा भरा?


नदियाँ देतीं

जग को जीवन

हमने इन्हें

विषाक्त बनाकर

जैसा चाहा

नचा नचाकर

शक्ति दिखा

पाला प्रमाद

विजयी होने का

जीव-जन्तु क्या

सभी वनस्पति

आहत मन हैं।

नदियों पर

मारामारी है

बिकती नदियाँ

भूल-भुलैया में

हम भटके

नाच रहे हैं

ता-ता-थैया ।


कैसा होगा

नवविहान अब?

नई पौध

उग पाए कैसे?

कहाँ खिलेंगे

खेत विचारे?

खलिहानों की

गति क्या होगी

नदियों का

विश्वास डिगा यदि ?


7. माई-बाप


बादलों से झरती फुही

मल्लिका के झरे फूल

रातरानी की मादक गंध

किसी से भी कम न हुई

माँ की उदासी।

निर्लिप्त आँखों से

देखती रही वह मौन

कि सहसा फोन बजा

बेटे की आवाज़ खनकते ही

उदास चेहरा खिल उठा-

'शरद की चाँदनी

ताल में खिले कुमुद

ललचाते हैं माँ

शरद में आऊँगा

चाँदनी में नहाते

सरोज संग बतियाऊँगा

सुनूँगा गुनगुनाते

तेरा मानस पाठ

बापू' की लच्छेदार बातें।

उन्हें ब्लाग पर अंकित कर

चमत्कृत कर दूँगा साथियों को।


अभी बैल की तरह जुता हूँ

पैसा कमाने में

माई-बाप है पैसा यहाँ

बिना उसके कुछ भी

कभी कुछ भी मिलता नहीं

सब कुछ बिकता है यहाँ

धर्म, ईमान, प्रेम, कोख

और जाने क्या-क्या?

तुम नहीं समझ पाओगी माँ।

सरोज भी लगी है

मशीन की तरह

पैसा कमाने में

अभी नाती देखने की

लालसा न पालो माँ

अपना देश छोड़

पैसा कमाने ही

न्यूयार्क आया हूँ

कुछ पाने के लिए

गंवाना पड़ता है बहुत कुछ।'


दिन बीते, भीतर से

अहकते हुए माँ

करती रही प्रतीक्षा

दरवाजे पर खंजनों की।

एक दिन जैसे ही द्वार पर

खंजन को फुदकते देखा

नाच उठा उसका मन

हुलस कर पिता भी लग गए

सँवारने में घर।


सुनहली किरणों से नहाई

एक सुबह

माँ गुनगुनाते

फर्श धोते मग्न थी

बेटे बहू के स्वप्नों में

कि बज उठी घंटी

माँ ने दौड़कर उठाया

उधर से आवाज़ खनकी

'नहीं आ सकूँगा माँ

हम दोनों इस बार

बिताएँगे छुट्टी

मियामी बीच पर

सरोज ने सीख लिया है

क्लबों में नृत्य करना

छरहरी हो गयी है वह

प्रस्तुत करेगी अपना नृत्य मियामी में

बढ़ेगी साथियों में इससे

हम दोनों की साख

इज़्ज़त के लिए आदमी

क्या नहीं करता?

सपनों में नहीं

यथार्थ में जियो माँ

पेशेवर बनो।'


माँ के हाथ कँपे

फोन को रख

निढाल बेबस वह

जा गिरी

घम्म से बिस्तर पर

'हे राम' कहते।


8. हँसी फूटती रहे


शापित यक्ष नहीं हूँ मैं

कि तुम्हें भेज दूँगा अलका

प्रेयसी के पास ओ मेघ !

मैं चाहता हूँ

राम गिरि-अलका के बीच

झमक कर बरसो

जिससे धान रोपती

सखियों से ठिठोली करती छोरियाँ

गा सकें हरेरी गीत

और भर उठें

उनके कुठले कोठार

जिससे चिड़ियों से खेलती

दाना चुगाती

छोरियों की हँसी फूटती रहे पूरे वर्ष।


9. पहचान


सोने की धूप चाँदी हुई

कांसा बनी फिर तांबई

बदलते चेहरों की

पहचान कितनी मुश्किल है?

सदा स्वच्छ दर्पण

साथ लेकर चलो।


10. रघ्घू के बेटे का भी क्या नहीं है यह देश?

लोग चलते हैं

ठाँव कुठाँव

कभी खुले कभी दबे पांव

उड़ान की कसक

मन टीसती है बार-बार

कभी धूप कभी छांव ।


अन्न-जल तलाश में

भागता है आदमी

पंछियों की तरह

कभी निकट कभी दूर,

कभी बहुत दूर

इस लहुलूहान समय में

छिड़ी जंग के बीच

धँसना ही है

विकास के नाम पर।

बौराया ही हुआ करता है

क्या हर समय ?

सत्ता के मद में चूर

कहाँ चूकते हैं?

जनता की टेंट से

आमद भरपूर करते हैं।


देख रहा हूँ आस-पास

लोगों के पांव तले

खिसकती ज़मीन

कर्ज में डूबे कृषक

रंग में झूमते

महाजन अमीन !

चेहरे पर अपने

खेत की दरार का अक़्स

देखता है किसान

सूखा-बाढ़-बाज़ार

से त्रस्त हलाकान

हवाओं की चुप्पी से

मन लहूलुहान

चुप्पी और शोर

का कैसा गठजोड़ ?

सपने विकास के

होते अन्तर्धान !


जानते नहीं जो

गंध पसीने की

वे उड़ते गगन में

जो दिन रात

पसीने से नहाते

रेत में धँसे वे

आँसू बहाते

उनके बच्चों का भविष्य

हम कहाँ सँवार पाते!

अपने आप कभी

आता नहीं नया विहान

उगाना होता उसे

नई कोंपलों की तरह

देकर खाद-पानी परिवेश

रघ्घू के बेटे का भी

क्या नहीं है यह देश?


तमस काटती है किरण

क्षितिज भेद निकलती हुई

तुम्हें भी तोड़नी होगी

नई ज़मीन ।


उर्वरा भूमि भी

माँगती है नये बीज

नवकल्पना श्रम कठोर

निथारना ही होगा

ठहरा जल मठोर ।


जीव-जन्तु वनस्पतियाँ

गाएँ सृजन के गीत

पंक से निकल

खिल उठें कमल

ऐसा कोई समाज

बना पाओगे मीत?


11. ताल खुश था


ताल खुश था

बच्चे आते नहाते

तोड़ते कुमुद के फूल

मछलियाँ दौड़तीं

छुछुआती खेलतीं ।

एक दिन तट पर मिट्टी

डालने लगा एक आदमी

ताल देखकर चुप रहा।

देखा देखी और लोग भी

तट पर मिट्टी डाल

खोखे बनाते गए

ताल देखता रहा।

शैवाल जलकुंभी

मिट्टी से दबते गए

आधा ताल पट गया

तब भी ताल चुप रहा।

फिर लगी होड़

चारों ओर से मिट्टी पाटने की

पानी खत्म हो गया

बत्तखें उड़ गईं

मछलियाँ पकड़ी गईं

मिट गया ताल का अस्तित्व ।

क्या तुम भी ताल की तरह

चुप ही रहोगे?


12. पगडंडी हूँ


पगडंडी हूँ नाड़ी जग की

बहता मुझमें रक्त समय का

वाहक हूँ नव उन्मेषों की।

तत्पर रहती

दुर्गम घाटी की खोजों में

पहुँच रही मैं

पर्वत-शिखर नदी-नद गह्वर।

पूर्वजा हूँ राजमार्ग की

पतले सर्पीले रूपों में

जीवों के संग सोती जगती।

मेरी निर्मिति पद-चापों से

पांव खनकती गोरी के हों

या फिर लादी लादे खर के

भटकावों से साफ बचाती

करती कोई भेद नहीं

मैं आम-खास में।


मैं ही होती हर समाज की

पहली सीढ़ी

नहीं बना पाते जो मुझको

रुक जाता उनका विकास रथ

हो जाते वे दशकों पीछे ।

जीवन रेखा हूँ मैं

हर विपत्ति में

जरा मरण में

साथ-साथ हूँ।

कहते हैं सब

मैं हूँ सजग गुप्तचर कोई

भेद बताती

राह दिखाती

आने जाने का

पूरा सबूत दे जाती

बतलाती हूँ

जीवन नुस्खे

सोच समझकर ।


सहज सनेही मैं माँओं सी

मिलूँ स्नेह से

खिलखिल जाती

मैके लौटी नववधुओं सी।

कितने मार्ग और चौराहे

पर मुझसे है

मुक्ति न कोई।

मानव या पशु कहीं रहेगा

मैं भी उसके साथ रहूँगी

परछाईं तो कभी न बनती

बिना रोशनी

मैं चिर सहचर

गहन तमस में या प्रकाश में।

मेरा गति से

गाढ़ा रिश्ता ।

बढ़ते कदमों से ही

बनती आई हूँ मैं

पुरखातन से।

पुरखों के पुरखे भी थे

साथी मेरे

साथ-साथ चलते बतियाते

दुख-सुख कहते सुनते जाते

कभी हुई मैं चलकर आगे

कभी पांव पुरखों के आगे।


हर युग में सत्ता पर बैठे

मार कुंडली

करते बंद नई पगडंडी

तभी ज़हर का प्याला

मिलता सुकरातों को

कितने कबिरा

पा जाते हैं देश निकाला।

सदा समाती

आम जनों में

राहें देती

उन्हें जगाती

संग मेरे चिलम-पीती

यहीं होरी की विरासत

यहीं धनिया पांव धोती

पढ़ रहा गोबर सुभाषित

यहीं बैठी हीर कोई

साथ राँझा गुनगुनाती

संग मँजनू बैठ लैला

ग़ज़ल पढ़ती गीत गाती

दस कदम पर

मियाँ नूरे

बेचते चूड़ी मिलेंगे

यहीं बैठे भरत

अपने राम को

भजते मिलेंगे।


पैदलों की मैं निशानी

वहीं दाना वहीं पानी।

जो कहीं हैं दबे कुचले

मैं उन्हीं के साथ होती

ज़िन्दगी के हर कदम पर

प्रगति के ही बीज बोती

राह देती हारते को

एक जज़्बा भी उगाती।

होना मेरा केवल पथ का

जाल न होता

बुनती रहती हूँ मैं हर क्षण

नव विकल्प की

पतली चादर।

प्रेरित करती हूँ मानव को

खोज सके वह नई राह को।

भूत भविष्यत्

वर्तमान को

सदा समेटे

बड़े यत्न से

खूब सहेजे

मैं चलती हूँ

कोटि वर्ष से आना जाना

कठिन सफर है क्या बतलाना?

घाम वर्षा शीत में

सधती रही हूँ मैं सदा।

जिन ग्रहों पर मनुज

या फिर ढोर होंगे

वहीं पल-पल मैं बनूँगी

अनगिने ही छोर होंगे।

मुक्त है आकाश

मुझसे अभी लेकिन

घूमते हैं जिन पथों पर

नित्य ग्रह उपग्रह सभी

छोड़ते हैं कुछ निशानी

वहीं मैं पाती सदा ही

ज़रा दाना ज़रा पानी।


दिल्ली हो या पेरिस-लंदन

सदा तोड़ती

मैं सन्नाटा

दुनिया के हर कोने अतरे

जोड़ रही हूँ

रिश्ता-नाता ।

मेरा मनुज-ढोर का नाता

अजर-अमर है।

मेरे ही सहयोगी रुख से

दुनिया जीते

सदा समर है।


13. बदल देते हैं


सौदागरों की भीड़ है

बाज़ार में।

वस्तुएँ आते ही

गुम हो जाती हैं

और अँधेरी गली के मोड़ पर

दूना दाम देती हैं।

ऐ मित्र, अंधेरे की भी

कीमत होती है

लोग चूकते नहीं

भरपूर दाम वसूल लेते हैं

क्योंकि वे

राष्ट्र की नाव को खे लेते हैं!

कृषक और मजदूर के गाल पिचक रहे हैं

पर संसदों के कबूतर गुटरगूँ में लगे हैं

बड़ी सफाई से वे

हथिया कर देश का धान्य

लगा देते हैं चूना

जो चूना लगा रहे हैं

ऐ मित्र वे भी

देश का भविष्य बना रहे हैं!


संसद से हट कर गलियारे में

फुटपाथ पर अनासक्त

इक्के-दुक्के लोग

जो बिना किसी छत के रह लेते हैं

वे भी कभी

देश का भाग्य पलट देते हैं!


सामने तम्बू के आस-पास

बिखरे हुए लोग

जो बर्तन माँज, पोछा लगा

अपने जाये बच्चे को

'अबे उल्लू का पट्ठा'

कह लेते हैं

वे भी कभी जूझते हुए

देश की आबोहवा

बदल देते हैं!